लफ्ज़ों के फंदे।

मैं जितना सोचता हूँ उतना ही सोचना मुझे बेमानी लगने लगा है। यह सोच और ख्याल, लफ्ज़ों से बुने उन फंदों की तरह हैं, जिनमें मैं खुद को अटका कर रखने को ही अपनी रूहानी ज़द समझता हूँ। कल तो एक बार लगा की क्या बेहूदा बात है यह। देखो, के कल, हम दो लोग थे। मैं बोल रहा था अगला सुन रहा था। मैं भी कल चुपके से सुन रहा था अपनी ही आवाज़ को। कहते कहते, सुनते सुनते लगा, के इन बातों का असल में कोई मतलब नहीं है। मैं इनको एक सर्कस के जगलर की तरह उछाल पकड़ के पेश कर रहा हूँ बस। सामने बैठा व्यक्ति भी तल्लीन हो कर मेरे करतब में व्यस्त हो गया है। यह लफ्ज़ों की, अलिफ बे से बुनी रस्सियों के सिर पैर सुबह से रात खोजता रहता हूँ। इनमें उलझ पढ़ता, सुलझ गिरता रहता हूँ।
मैंने अपनी शर्मिदगी को छुपाते हुए कह दिया के मुझे आज के शब्दों में कोई मतलब ढूँढने का मन नहीं है। माफी, गर तुम्हारा वक़्त ज़ाया हुआ। अगली बार, बगैर बात, वक्त बुत कर, चुप्पियां बुन कर देखेंगे। मेरे दोस्त ने भी कह दिया, हां, देखेंगे ना।
लौटते वक्त मैने अपने फोन को बोला, हे गूगल, प्ले कितारो। और फिर उस संगीत को अपने आस पास कुछ रंगीन रोशनी में धुंध की सरकती तह की तरह सोचने लगा।
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