जब आँख खुली।

यह रात, इक अजीब नई जगह बिताई। हुआ यूं के बहुत प्यारे नए पुराने दोस्तों के साथ शाम भर समय गुज़ारने के बाद जब रात को घर की ओर पहुँचा तो देखा जिसे घर समझता था, वो अब नहीं था। इमारत ही नहीं थी। पूरा शहर गायब हो गया था। सेहरा में इक टीला सा था। रात पुरज़ोर चमक रही थी सितारों की रोशनी में। चांद आज आसमान में ना था। टीले के ऊपर जो मकान था, उसके दरवाज़े के आले में चराग जल रहा था। मैंने खटखटाया तो दरवाज़ा अंदर को अपने आप ढुलक गया। अंदर जैसे किसी ख़ज़ाने से लाये चुनींदा कुलीन चीजों की सजावट थी। वहां उस विक्टोरियन डिज़ाइन के सोफे पर एक औरत बैठी थी। उसने मुझे ऐसे देखा जैसे वो मेरा अरसे से इंतज़ार कर रही हो। ऐसी शख्सियत जिसकी उम्र या ख़ूबसूरती का बयान बेमतलब है। रातभर दिलभर बातें होती रहीं। ना रात खत्म हुई ना बातें। बस बेशब्द बेआवाज़ बातें। जब एक पल नज़र हटी तो देखा के मकान में ना छत है ना दीवारें ना दरवाज़े। पूरा आसमान तारों की रोशनी में नहाया हुआ है। चाँद ऊपर नहीं है। कब उस की गोद में सर रख सो गया पता नहीं।
सुबह उठा तो अपने कमरे में, आँख कहीं और खुली।